Thursday, 25 January 2018

थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस का राजनीतिक दखल !....धनंजय कुमार



थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस के माध्यम से मंजुल भारद्वाज अब राजनीति में भी दखल देने को तैयार हैं. हालांकि सालों से वह कंपनियों, संस्थाओं और विभिन्न एनजीओ के कार्यकर्ताओं और अधिकारियों में लीडरशिप तराशने के लिए वर्कशॉप करते आ रहे हैं, लेकिन पिछले दो एक सालों से राजनीति में उनका सीधा हस्तक्षेप बढ़ा है. योगेन्द्र यादव के राजनीतिक संगठन स्वराज इंडियाके लिए उन्होंने कई शिविर किये हैं और कार्यकर्ताओं-नेताओं की राजनीतिक चेतना को धार देने और दृष्टि को लक्ष्य भेदी बनाने में प्रभावी रोल निभाया है. पिछले सप्ताह थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस के मुम्बई के साथियों ने मालाड में एक राजनीतिक चिंतन रैली निकाली. हजारों की भीड़ नहीं थी रैली में लेकिन हजारों का ध्यान जरूर खींचा अपनी तरफ. उनके हाथों में पोस्टर और बैनर थे, जिस पर राजनीति का मतलब लिखा था. रैली में शामिल लोगों ने स्वच्छ राजनीति के लिए शपथ ली.


आजादी के सत्तर सालों में राजनीति के विविध रूप देख चुके लोगों को लग सकता है कि बड़े बड़े तीरंदाज आये और राजनीति की धारा में बह गए. राजनीति गंधाती गयी और आज हालत है कि राजनीति बजबजा रही है. जनता बार बार ठगे जाने की वजह से मान चुकी है राजनीति अब और कुछ नहीं पैसा कमाने का जरिया बन चुका है. फिर भी...!
फिर भी जनता को उम्मीद है कोई तो आयेगा जब राजनीतिक हालात बदलेंगे और उनकी भी दुनिया बदलेगी, इसी उम्मीद में आम आदमी अलग अलग पार्टियों और नेताओं में अपने विश्वास को रोपता है और किसी को मुख्यमंत्री और किसी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाता है. लेकिन विडम्बना है कि बार बार मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री आम आदमी के वोट से चुने जाने के तुरंत बाद उसका होने की बजाय उद्योगपतियों और पूंजीपतियों का हो जाता है. उसके वोट से हासिल अकूत ताकत के बल पर, उसी के पैसे से खरीदे गए विमानों पर पूंजीपतियों को बिठाकर विदेश ले जाता है और बिजनेस दिलाता है. आम आदमी ठगा सा रह जाता है. लाल किला से आम आदमी के दुखों को कम करने की बात जरूर की जाती है, लेकिन पूरे साल नेता ख़ास आदमियों की आव भगत और तीमारदारी में लगा रहता है. जनता शोषण की चक्की में पांच साल पिसती है, फिर इलेक्शन का त्यौहार आ जाता है और जनता को ठगने वाले नारे फिर हवा में लहराने लगते हैं. जनता फिर ठगी जाती है, कभी जाति के नाम पर कभी धर्म के नाम पर तो कभी महंगाई और कभी पाकिस्तान के दांत खट्टे करने के नाम पर.
मंजुल कहते हैं इस सूरत को बदलने की जरूरत है. वह पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं , जब वह थियेटर में आये थे, तब थियेटर सत्ता की मेहरबानी पर पल रहा था. आज मेहरबानी का बजट एक हजार करोड़ रुपये पर आ पहुंचा है, लेकिन थियेटर कहाँ है? उस थियेटर में वो जनता कहाँ है, उसके सरोकार कहाँ हैं, जिसकी मेहनत के पैसे थियेटर के नाम पर बांटे जा रहे हैं. थियेटर सिर्फ मनोरंजन नहीं है, यह जीवन को बदलने का माध्यम है. लेकिन विडम्बना है कि हमारे देश में थियेटर का मतलब आज भी नचनिया गवानिया ही होता है. लेकिन वास्तव में थियेटर का मतलब नचनिया गवानिया नहीं होता, थियेटर हमारी संवेदनाओं को, हमारे विचारों को, हमारे क्रिया कलापों को मांजने और संवारने का काम करता है. थियेटर कर्मी होने के नाते इसीलिये हम अपनी राजनीतिक भूमिका से खुद को अलग नहीं कर सकते. यह विडम्बना है कि गांधी नेहरू और साथियों ने राजनीति की जो संकल्पना की थी, उसके माध्यम से आम आदमी के जीवन में सुधार के जो स्वप्न देखे थे, आज वो क्षत विक्षत हैं. आम आदमी के जीवन को बेहतर बनाने को प्रतिबद्ध राजनीति पूंजीपतियों की गोद में जा बैठी है. इसलिए रोटी से लेकर न्याय तक आम आदमी की पहुँच मुश्किल होती जा रही है. इस राजनीति को बदलने की जरूरत है. और यह बदलाव सिर्फ अलग राजनीतिक पार्टी बना लेने से नहीं आयेगा, बल्कि राजनीतिक चेतना जन जन में जगाने की जरूरत है. और यह काम थियेटर ही कर सकता है.
थियेटर हो या राजनीति, बिना पैसे के कोई चल नहीं चल सकता, यही आम धारणा है, इसीलिये राजनीतिक पार्टियां पूंजीपतियों पर आश्रित हैं और थियेटरकर्मी सरकारी अनुदानों पर. पैसे का मालिक पूंजीपति ही होता है, यही कारण है कि चुनाव जीतते ही नेता पूंजीपतियों की चाकरी में व्यस्त हो जाते हैं और जनता की सुध लेने की उन्हें न फुर्सत मिलती है और न ही जरूरत महसूस होती है. थियेटर कर्मी भी सरकार का यशोगान करते हैं या फिर मनोरंजन के नाम पर तमाशा करते हैं, मदारी बन जाते हैं. लेकिन थियेटरकर्मी मदारी नहीं है.
मंजुल इसी मकसद के तहत राजनीति पर एक नाटक रचने में भी इन दिनों व्यस्त हैं. जिसमें वह राजनीति के नए सन्दर्भ के साथ चाल चरित्र और चेहरा गढ़ रहे हैं.

धनंजय कुमार

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