Monday, 7 August 2017
Friday, 4 August 2017
अद्भुत अनुभव-संसार की सैर कराता अनहद नाद
अनहद नाद में कोई चरित्र नहीं है, लेकिन दर्शकों के जीवन के सारे चरित्र सजीव हो जाते हैं। कोई संवाद नहीं है, लेकिन दर्शकों के भीतर संवादों की खूबसूरत लड़ी गरज उठती है...
धनंजय
कुमार
नाटक आमतौर
पर मंचों पर
दृश्यों के
माध्यम से
रूपायित होता
है और दृश्य दर
दृश्य आगे बढ़ते
हुए कथा और
संदेश को
दर्शकों के
सामने रखता है।
लेकिन अनहद नाद
उस पारम्परिक
तरीके से
दर्शकों के
सामने प्रस्तुत
नहीं होता है।
यूँ तो मंच
पर यह नाटक
नाटककार की
दृष्टि और उसके
अपने विश्लेषण
से उपजे
अनुभवों और
स्टेटमेंट तथा
अभिनेताओं और
अभिनेत्रियों
के भावप्रवण
अभिनय के
माध्यम से
दृष्टिगोचर
होता है, लेकिन
असली नाटक
दर्शकों के
भीतर मंचित
होता है।
कलाकार
नाटककार के
शब्दों-अंतरशब्दों,
उनके
भावों-अंतरभावों
को अपने कुशल
अभिनय से मंच पर
उतारते हैं,
लेकिन उन
शब्दों और
भावों का असली
विस्तार
प्रेक्षागृह
में बैठे
दर्शकों के
मानस और हृदय
पटल पर होता है,
जहाँ दृश्य भी
बनते हैं और कथा
अपनी अर्थपूर्ण
पूर्णता भी
प्राप्त करती
है।
सच
कहें तो नाटक
कोई एक कहानी
नहीं कहता,
बल्कि
प्रेक्षागृह
में बैठे हर
दर्शक के भीतर
घट चुकी और घट
रही कहानियों
को गति देता है।
उसका
पुनरावलोकन
कराता है और उसे
स्वतः समीक्षक
बनकर देखने की
दृष्टि भी देता
है। इस तरह यह
नाटक मंजुल
भारद्वाज के
रंग सिद्धांत
‘थियेटर ऑफ
रेलेवेंस’ के
लक्ष्य को आकार
देता है,
स्थापित करता
है कि पहला और
सबसे
महत्वपूर्ण
रंगकर्मी दर्शक
है।
यहाँ
प्रेक्षागृह
में बैठा दर्शक
मंच पर साकार हो
रहे दृश्यों को
न सिर्फ देखता
है, बल्कि
नाटककार के
शब्दों और
शब्दों के
खूबसूरत
समायोजन से बने
भावों की पट्टी
से उड़कर स्वयं
नाट्यलेखक और
अभिनेता बन
जाता है। और
अपनी अपनी
कहानियों को
खुद के सामने ही
प्रकट करता है
और उसकी
समीक्षा भी
करता है।
बतौर
नाटककार और
नाट्य निर्देशक
बेहद सफल हैं
मंजुल
भारद्वाज। उनके
नाटक 'अनहद नाद'
को देखना एक
अद्भुत
अनुभव-संसार से
गुजरना है। यह
नाटक न सिर्फ
नाटकों के तय
पैमाने को
तोड़ता है, बल्कि
सीमाविहीन
संसार गढ़ता है।
गोस्वामी
तुलसीदास की एक
पंक्ति 'जाकि
रही भावना जैसी
प्रभू मूरत
देखी तिन तैसी'
की तरह।
अनहद नाद
में कोई कहानी
नहीं है, लेकिन
दर्शकों की
अननिगत
कहानियाँ इसमें
बड़े ही खूबसूरत
अंदाज में
गूँथी हुई है।
अनहद नाद में
कोई चरित्र
नहीं है, लेकिन
दर्शकों के
जीवन के सारे
चरित्र सजीव हो
जाते हैं। अनहद
नाद में कोई
संवाद नहीं है,
लेकिन दर्शकों
के भीतर
संवादों की
खूबसूरत लड़ी
गरज उठती
है।
अनहद नाद
कानों से नहीं
सुना जानेवाला
स्वर है, लेकिन
प्रेक्षागृह
में बैठे दर्शक
उन स्वरों को न
सिर्फ सुनते
हैं, बल्कि उनके
उत्तर के लिए
बेचैन भी होते
हैं।
यह
सिर्फ नाटक
नहीं है, बल्कि
जीवन को समझने
और जीने की एक
आध्यात्मिक
यात्रा भी है।
यह 'बिन गुरू
ज्ञान कहाँ से
पावै' की
सार्थकता पर
प्रश्न खड़ा
करता है और कहता
है कि हर
व्यक्ति अपना
गुरू भी स्वयं
है और शिष्य
भी।
'अनहद
नाद' दर्शकों को
अपने अपने
चेतना कक्ष के
द्वार को खोलने
के लिए प्रेरित
करता है और फिर
चेतना के कंधे
पर सवार होकर
प्रकृति और
जीवन के
सौंदर्य का
रसास्वादन करने
के लिए
आमंत्रित भी
करता है।
इस
नाटक की
समीक्षा करना
भी आसान नहीं है
कि क्योंकि यह
हर दर्शक को एक
समीक्षक की
दृष्टि देता
है। कलाकारों
में योगिनी चौक
ने अद्भुत काम
किया है! उसकी
संवाद अदायगी
और भाव भंगिमा
रसपूर्ण हैं।
रससिक्त हैं।
रसों में डूबी
हुई हैं।
अश्विनी
नांदेड़कर,
सायली पावसकर,
कोमल खामकर और
तुसार म्हस्के
ने भी खूबसूरत
साथ दिया है।
(पत्रकारिता
से अपना करियर
शुरू करने वाले
धनंजय कुमार
मुंबई में
स्क्रीन
राइटर्स
एसोसिएशन के
पदाधिकारी
हैं।)
refrence:- http://www.janjwar.com
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